Wednesday 24 August 2016

paryay vachee shabd

पर्यायवाची शब्द


१.       पत्नी- वामा, भर्या, वामांगिनी, अर्धांगिनी
२.       ब्राह्मण – भूदेव, विप्र, भूसुर
३.       मनुष्य- आदमी, इंसान, नर
४.       भगवान – प्रभु, ईश्वर, जगदीश
५.       मुसीबत- संकट, आपदा, आपत्ति
६.       प्यार – स्नेह, प्रीति, प्रेम
७.       नज़र – निगाह, दृष्टि
८.       सब- समस्त, सम्पूर्ण, अखिल
९.       घर- आलय, सदन, गृह, निवास
१०.    कंजूस – सूम, कृपण, मक्खीचूस
११.    नारियल – नरिकेल, श्रीफल, गिरि
१२.    पेड़ – तरु, वृक्ष, विटप
१३.    गाँव- ग्राम, देहात
१४.    देश – राष्ट्र, वतन
१५.    किसान – कृषक, खेतिहर, हलधर
१६.    दूध – पेय, दुग्ध, क्षीर
१७.    स्वर्ग – देवलोक, इंद्रलोक
१८.    राजा – नृप, सम्राट, नरेश
१९.    पुत्र – बेटा, वत्स, सुत
२०.    माँ – माता, दात्री, जननी
२१.    गुलाम – दास, सेवक, अनुचर,
२२.    बुद्‍धि - अकल, मति, दिमाग
२३.    खूबसूरत – रूपवान, सुंदर
२४.    मुँह – मुख, पटल, चेहरा
२५.    हिम्मत – साहस, हौसला
२६.    ऊर्मि – लहर, प्रवाह, संवेग
२७.    प्रशंसा – तारीफ़, बड़ाई, उत्साह्वर्धन
२८.    अनोखा – अद्‍भुत, न्यारा
२९.    विवाह- शादी, पाणिग्रहण,
३०.    कन्या – बेटी, सुता, तनया
३१.    नियत – निश्चित, तय, निर्धारित
३२.    शिक्षक – गुरु, अध्यापक, आचार्य
३३.    बाधा – अड़चन, कठिनाई, अवरोध
३४.    बोझ – वज़न, भार
३५.    निमंत्रण – बुलावा, आमंत्रण, न्योता
३६.    सादा – साधारण, सहज
३७.    हाथी- गज, हस्ति,मतंग
३८.    उत्सव – पर्व, त्योहार
३९.    नमस्कार – प्रणाम, नमस्ते
४०.    दरिद्र – दीन ,गरीब, निर्धन
४१.    उपहार – तोहफ़ा, सौगात,नज़राना
४२.    सूर्य- रवि, दिवाकर, प्रभाकर, आदित्य,
४३.    चाँद – शशि, इंदु, मयंक, विधु
४४.    रात – रजनी, निशा, रैन. रात्रि, यामिनी
४५.    कुसुम – फूल, पुष्प, सुमन, प्रसून
४६.    पत्र- खत, चिट्‍ठी, संदेश
४७.    बोध – ज्ञान, समझ
४८.    खर्च – व्यय, खपत, लागत
४९.    योग्य – उचित, काबिल, लायक, सही
५०.    मूल्यवान- अनमोल, कीमती, मंहगा
५१.    उदारता – बड़प्पन, दयालुता
५२.    स्वास्थ्य – सेहत, तंदुरुस्ती
५३.    जवाब – उत्तर, हल, समाधान
५४.    पानी- नीर, जल, वारि, अम्बु
५५.    सांप – भुजंग, सर्प, विषधर
५६.    मीत – मित्र, सखा, दोस्त
५७.    उम्र – आयु, अवस्था
५८.    शरीर – काया, तन, देह
५९.    पोखर – तालाब, तड़ांग, ताल
६०.    प्रयास – प्रयत्न, कोशिश
६१.    इच्छा- अभिलाषा, आकांक्षा, कामना
६२.    राह्गीर – राही, पंथी, पथिक
६३.    आकाश – आसमान, नभ, गगन, अम्बर
६४.    उन्मुक्त –आज़ाद, मुक्त, स्वतंत्र
६५.    सूक्ष्म – बारीक, महीन, क्षुद्र
६६.    दिन – दिवस, वार, दिवा
६७.    दाम –मूल्य, कीमत, भाव
६८.    साधक – तपस्वी, साधु, योगी
६९.    शत्रु- अरि, दुश्मन, रिपु, बैरी
७०.    बादल – मेघ, घन, जलद, वारिद, सारंग
७१.    घोड़ा – अश्व, तुरंग, घोटक
७२.    करवाल – खड्‍ग, तलवार

७३.    लहर – तरंग, वीचि, हिलोरे, ऊर्मिका

Wednesday 15 June 2016

कविता ’इतने ऊँचे उठो’ का सप्रसंग भावार्थ

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥
प्रसंग: प्रस्तुत पद्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ________ से ली गई हैं । इस कविता का शीर्षक ’इतने ऊँचे उठो’ है। इस कविता के कवि ’श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी’ है।
संदर्भ: प्रस्तुत पंक्तियों में, सभी भेदभावों से ऊपर उठकर समाज में समानता का भाव जगाने की बात कही गई है।
अर्थ: प्रस्तुत पद्य पंक्तियों में कवि कहते हैं कि हमें नए समाज निर्माण में अपनी नई सोच को जाति, धर्म, रंग-द्वेष  आदि जैसे भेदभावों से ऊपर उठकर सभी को समानता की दृष्टि से देखना चाहिये। जिस प्रकार वर्षा सभी के ऊपर समान रूप से होती है उसी प्रकार हमें भी सभी के साथ समान रूप से पेश आना चाहिए। हमें नफरत की आग को समाप्त कर समाज में मलय पर्वत से आने वाली हवा की तरह शीतलता और शांति लाने का प्रयत्न करना चाहिए।  

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥
अर्थ: इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि नए समाज के निर्माण में हमें आगे बढ़कर अपनी कल्पनाओं को आकार देकर उन्हे वास्तविक जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए। जिसप्रकार कोई कलाकार अपनी कूँची से अपने चित्रों में रंग भरता है, और जिसप्रकार संगीतकार अपने नए राग में स्वरों को पिरोता है, उसी प्रकार हमें भी अपने समाज को नया रूप देने के लिए सृजनात्मक बनना होगा। और सृजन को हमें अपने अंदर मौलिक रूप से ग्रहण करना होगा।

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके चिंतन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।
अर्थ: कवि कहते हैं कि हमे अपने अतीत में हुई बुरी घटनाओं को छोड़कर केवल अच्छी बातों को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये अच्छी यादे या घटनाएँ ही हमारे भविष्य निर्माण में हमारे काम आएँगी जबकि बुरी घटनाएँ हमें सदैव पीछे की ओर ही खींचेंगी, इनसे हमारा विकास अवरुद्ध होगा। कवि कहते हैं कि जिसतरह परिवर्तन सदैव होता रहता है उसी प्रकार हमें भी सभी बंधनों को तोड़कर हमेशा आगे बढ़ते रहना चाहिए। क्योंकि आगे बढ़ना ही जीवन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

अर्थ: कवि कहते हैं कि यदि हम धरती को स्वर्ग की तरह सुंदर बनाना चाहते हैं तो हमें  अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप देते हुए (साकार करते हुए) अच्छाइयों को लेकर आगे बढ़ना चाहियो और हम अपने समाज को  सभीबुराइयों से ऊपर उठाकर एक खूबसूरत समाज की रचना कर सकते हैं कवि कहते हैं कि हमें अपनी सोच और भावनाएँ सदैव अच्छी रखनी चाहिए जिससे एक सुंदर समाज की रचना होगी और वह समाज सदैव विकास की ओर बढ़ता रहेगा। जिसप्रकार हम किसी आकर्षण की ओर खिंचे चले जाते है उसी प्रकार अच्छी सोच के साथ हमें खुद को भी आकर्षक बनाना है