Saturday 6 June 2020

ऑन लाइन शिक्षण और ऑफ़ लाइन शिक्षक


बड़ा सुहाना मौसम है आज! आज है जून का पहला रविवार। चौंकिए नहीं ये कोई खास अवसर वाला  पहला, दूसरा, तीसरा...... जैसा रविवार नहीं है और न ही कोई भारतीय त्योहार, जिसके भूल जाने का अफ़सोस हो । यदि ऐसा है भी तो मेरे ज्ञान क्षेत्र के दायरे से बाहर है।आज का दिन खास है क्योंकि यह कोविड-१९ की एक महान देन है। आप सबका इससे कहीं न कहीं वास्ता ज़रूर पड़ा होगा। यह है-ऑनलाइन संस्कृति।
कोविड -१९ महामारी के भयंकर दौर में देश का पालनहार , तारण हार बने ऑन लाइन संस्कृति ने तो जैसे धूम ही मचा दी .... पर कहाँ??? या ये कहें कि भोले-भाले देशवासियों की गले की फ़ाँस बन गया। ई-पास, प्लास्टिक मनी और पता नहीं क्या-क्या जिसकी ज़्यादातर लोगों ने कल्पना भी न की थी वैसे सभी काम उस देश में जहाँ अब भी ७०% जनसंख्या या तो गाँवो में है या महानगरों की झोपड़ पट्‍टियों में। मतलब साफ़ है उन्होंने ऐसी कोई शैक्षिक योग्यता हासिल नहीं की जो इन्हें इस तरह के लेन-देन में पारंगत करती हो। ये तो है इसकी बड़ी विसंगति..
पर जिस दिलचस्प बात को लेकर मैंने यह लेखन आरंभ किया था वह तो मामूली सी दिखने वाली बड़ी बात में दबी जा रही है।हाँ जी तो मैं बात करना चाहती हूँ हमारे देश के नौ निहालो, भावी भविष्य के प्रवर्तक हमारे बच्‍चों और मौजूदा शिक्षा प्रणाली पर। वर्तमान समय में ऑनलाइन संस्कृति का सर्वाधिक उपभोग करने वाले और नौसिखिया कौम हमारे बच्‍चे जिनको कुछ समय पहले तक एक-एक मिनट के लिए कम्प्यूटर और मोबाइल के लिए न जाने कितनी मिन्‍नतें और गुहार लगानी पड़ती थी। और उन्हें इनसे दूर रखने के लिए इसके दुष्‍परिणामों पर न जाने कितने शोध कर्ता, अन्वेषक, चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और अभिभावकों ने अपने जीवन के कीमती पल हवन कर दिए।
कहते हैं न दिन तो सबके फिरते हैं तो अब वही एक-एक पल के स्क्रीन टाइम को तरसते बच्‍चे बैठते हैं पाँच से  आठ घंटो तक उस चमकदार चकाचौंध कर देने वाले मोबाइल और कम्प्यूटर के सामने। कुछ उत्साह से कुछ बेचारगी में। ये मध्यम वर्गीय और उच्च वर्गीय, निजी शिक्षण संस्थाओं में पढ़ने वाले शहरी और कस्बाई बच्‍चों ने इस शिक्षा जगत की नाव खेने का बीड़ा-सा उठा रखा है।
उनकी इस नाव को पार उतरवाने का उत्तरदायित्व जिन कंधों पर है वह है आज का शिक्षक। बच्चे तो अभी बच्चे हैं , कच्‍ची माटी जिस आकार में ढालोगे ढल जाएँगे पर इन रूढ़ हो चुके शिक्षकों के मस्तिष्‍क का क्या? ये बात सही होगी कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती पर क्या यह सब पर लागू होती है?? इन्हीं सवालों को नकारता यह शिक्षक बढ़ा जा रहा है आगे ’कैरट और स्टिक’ की थ्योरी को सत्य करता, या मरता क्या न करता की कहावत को सिद्‍ध करता। तो जनाब पिछले कई हफ़्तों से यह ऑन लाइन की जद्‍दोजहद चालू है और विश्‍वास मानिए काम का इतना दबाव शायद मैंने एक शिक्षिका ने कभी महसूस नहीं किया कि मुझे इस इतवार को ऐसा एहसास हुआ जैसे पंद्रहों की दिवाली की सफ़ाई के बाद अंत में आपको दिए जलाने और मिठाई खाने का अवसर मिला हो।
पर अभी तो पार्टी शुरू हुई है!! अभी तो मंज़िल बहुत दूर नज़र आती है। उस पर व्हाट्‍स ऐप और फ़ेसबुक पर आती पोस्ट- स्कूल बंद कर दो, भाई इस अदना से शिक्षक का भी योगदान है भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ किसी पढ़े लिखे बेरोजगार का अंतिम कैरियर ऑप्शन शिक्षक बनने का होता है जिससे वह किसी तरह अपना पेट पाल सके या फ़िर महिलाओं को अपने ऊपरी खर्चों के अर्जन बावत मिल रही सांत्वना राशि जितना वेतन ।
इतनी परेशानियों के चलते इन लौह-पुरुषों ने ऑन-लाइन शिक्षण रूपी तालाब में हाथ-पाँव मारने शुरु कर दिए है।ये हर संभव प्रयास करते हैं अपनी परेशानियों को दरकिनार कर नए-नए प्रयोग करने की, तकनीकियों को जानने की और अपने विद्‍यार्थियों के नावों को पार लगाने की। भला हो इस ऑन लाइन संस्कृति का जिसकी कृत्रिम बुद्‍धिमत्‍ता ने इस सर्व विजयी मानव की प्राकृतिक बुद्‍धिमत्‍ता को मात दे रखी है। पर इस क्षेत्र के पंडितों के अनुसार अभी तो यह शुरुआत है अभी इस महामस्तिष्‍क का अलौकिक रूप देखना बाकी है।
अतएव इन्हीं सभी कारणों से यह जून का पहला रविवार अविस्मरणीय और चरम सुख की अनुभूति कराता है और मुझे एक शिक्षिका को यह बता जाता है कि कल सोमवार है और फ़िर कुछ नया देखने और सीखने को है....... सदा सीखते रहो...

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